हर किसी को एक भुतिया और
डरावनी कहानी पसंद होती है, और तब और
भी अच्छी लगती है जब में कहानी में प्रेम, राजनीति, कूटनीति, हत्या एवं अन्य ऐसी चीजें
होती है। ऐसी ही कहानी है शनिवार वाड़ा की, जो की पुणे में स्थित है । अगर आपने हाल में ही रिलीस हुई बाजीराव
मस्तानी फिल्म देखि है तो आप इस जगह के बारे में समझ गए होंगे। यह वाड़ा बाजीराव के
लिए 1730 में
बनवाया गया था। 1828 में यहाँ
भीषण आग लग जाने के कारण आधा हिस्सा बुरी तरह से जल चुका है । जो आधा हिस्सा बचा
है वो अब सैलानियों के लिए एक टुरिस्ट स्पॉट का आकर्षण है ।
यहाँ की दीवारों में आप रामायण और महाभारत के कुछ दृश्य की झलक आप
देख सकते है। एक 16 कमल की
पंखुड़ियों वाला फव्वारा अभी भी वैसे ही दिखता है जैसे वह उस समय दिखता है जो की उस
समय की कला का एक अद्भुत उदाहरण है। शनिवार वाड़ा इतिहास के पन्नों में और मराठाओं
से जुड़ा एक अद्भुत और इतिहासिक संरचना है।
शनिवार वाड़ा पेशवाओं के लिए मुख्यालय हुआ करता था और उस समय पुणे की
संस्कृति को दर्शाता था। शनिवार वाड़ा की संरचना को देखकर कोई बढ़ी ही आसानी से ये
जान सकता है की इसे सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसका मुख्य दरवाजा 'दिल्ली दरवाजा' के नाम से जाना जाता है, और दूसरे दरवाज़े गणेश, मस्तानी, जंभाल, खिड़की के नाम से जाने जाते
थे। यहा के दरवाजों में आप नुकीले लोहे के कील लगे हुए है, यहाँ पर एक ऐसा भी रास्ता जहा
पेशवा हथियों से अपने दुश्मनों को कुचलते थे।
यह वाड़ा सन 1745 में पूरी
तरह से बना जिसकी कुल लागत 16,110
रुपये थी जो की उस समय में एक बहुत ही बड़ी रकम थी। कुछ 30 सालो के लगभग सन् 1760 में
लगभगा 1000 लोग उस
किले के अंदर रह रहे थे। 70 सालों तक
यह किला पेशवाओं के लिए घर की तरह रहा जब तक वे जॉन मैल्कम जो की ब्रिटिश ईस्ट
इंडिया कंपनी के थे, उनसे हार
का सामना करना पड़ा। जून 1818 में राजा
बाजीराव 2, अपने
राजपाठ का त्याग कर अपना राज्य जॉन मलकोल्म को दे दिया और तब वह क्षेत्र बिथूर जो
की कानपुर के नसदिक है उनके क्षेत्र में आने लगा और उसके बाद शनिवार वाड़ा
अंग्रेजों का घर बन गया जब तक 1828
में वह भीषण आग की चपेट में आया।
शनिवार वाड़ा के संस्थाप्क पेशवा
बाजीराव 1 थे जिनके पुत्र पेशवा बालाजी बाजीराव थे, जो की नानासाहेब पेशवा
के नाम से भी जाने जाते थे। नानासाहेब पेशवा के 3 पुत्र थे विश्वासराव, माधवराव और नारायनराव। इनमे से सबसे बड़े विश्वासराव थे जिन्हें पानीपत की
तीसरे युद्ध में अफगान सेना का सामना करना पड़ा और जंग में उनकी मृत्यु हो गई। नानासाहेब
माधवराव मराठा राज्य के चौथे पेशवा बने जो की अपनी मृत्यु सन् 1772 तक रहे। उसके बाद
नारायनरव जो की नानासाहेब के सबसे छोटे पुत्र थे पाँचवे पेशवा बने, उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 17 साल थी।
इस जगह के लिए नारायनराव के चाचा
रघुनाथराव जो की नानासाहेब के भाई थे बड़े ही लंबे समय से राज्य को अपना बनाने के लिए
कोशिश कर रहे थे। जब नानासाहेब की मृत्यु हुई तब रघुनाथराव के लिए एक उम्मीद थी की
वे अब राज्य संभाले पर, हुआ यह की नारायनराव को राज्य दे दिया गया। यहा तक की
नारायणराव भी अपने चाचा को पसंद नहीं करता था, उसे यह लगता था
की रघुनाथराव ही उसके बड़े भाई की मृत्यु का कारण है। यह नारायणराव और रघुनाथराव के
बीच तय हुआ था की वे दोनों साथ काम करेंगे, परंतु नारायनराव
के बर्ताव और उसके बचपने ने दोनों के बीच बहुत बड़ी दूरिया बना दी। एक बार इन दूरियों
के कारण ही नारायणराव ने रघुनाथराव को कालकोठरी में डालने का आदेश दे दिया।
रघुनाथराव की पत्नी आनंदीबाई, अपने पति के दण्ड के बारे में सुनकर बहुत ही दुखी हुई और गर्दि लोगों से
मदद मांगी, गर्दि उस समय जबाज़ और बहुत ही शक्तिशाली लड़ाकू थे
जो की मध्य भारत के भील थे। वे एक शिकारी के कस्बे थे। गणेश चतुर्थी के आखिरी दिन 30
अगस्त 1773 में कुछ गर्दी अपने सरदार के साथ जो की सुमेर सिंह गर्दी था महल के अंदर
घूंसे और सबको मारना चालू कर दिया जो उनके सामने आता वे उसे चीर देते। नारायनराव ने
जब गर्दियों के आते देख तो घबराते हुए अपने चाचा के पास मदद की पुकार लगाने लगा। गर्दियों
ने उसका पीछा करते हुए उसका सर कलाम कर उसके टुकड़े टुकड़े कर दिये। रघुनाथराव – नारायनराव
को कभी मारना नहीं चाहता था उसने गर्दियों के लिए पत्र में उसे छुड़ाने और नारायनराव
को बंधक बनाने को कहा था परंतु आनंदीबाई ने उसके पत्र में ‘नारायणराव
ला धारा’ को बदलकर ‘नारायनराव ला मारा’ कर दिया जिसके कारण गर्दियों ने उसे
मार डाला।
आज भी कहा जाता है की नारायणराव
पूरे चाँद की रात को नारायनराव की आवाज़ सुनने को मिलती है जिसमे वह अपने चाचा से उसकी
जान की मिन्नते मांगता है।
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